Thursday, February 16, 2017

घर जाना है (Ghar jana hai by Purwa Bharadwaj)

मुझे घर जाना है। यह कहते ही सवाल कौंधता है कि मैं किसे घर कह रही हूँ। क्या मायके की बात कर रही हूँ ? या ससुराल की ? या अपने घर यानी शादी के बाद बने अपने नीड़ की ? दोनों-तीनों घरों को अलग करनेवाला कारक क्या है ? क्या 'अपना' शब्द ?

मुझे नहीं पता। पता करना भी नहीं चाहती हूँ। मेरे लिए घर घर है। उसमें कोई विशेषण या qualifier लगाने की ज़रूरत मुझे नहीं है। दुनिया को होगी क्योंकि दुनिया को बहू-बेटी और पत्नी की भूमिका को अलग अलग करना है। जेंडर आदि के मुद्दे पर काम करते हुए मैंने अपने मन को टटोलने की कोशिश की है कि मैं खुद कितना ढाँचे में फँसी हुई हूँ। ढाँचे से पूरी तरह मुक्त होना तो बहुत मुश्किल है, लेकिन ढाँचे में पैवस्त भाषा को लेकर थोड़ी सावधानी बढ़ी है मेरी।


जब माँ और मोहल्ले की कई चाचियाँ गोधन के समय सामा-चकवा के गीत पर रोने लगती थीं तब मुझे ठीक-ठीक समझ में नहीं आता था कि क्या हो रहा है। ब्याहता औरतों से सुनती थी कि घर छूटने यानी मायका छूटने की तकलीफ फूटती है। असल रहता था कि मायके को फिर से घर न कह पाना। अब भले उस तकलीफ को बेहतर समझने लगी हूँ, लेकिन मायका घर का पर्याय क्यों नहीं रह जाता है ? वह तकलीफ उनके लिए और बढ़ जाती है जब शादी के बाद का घर भी आजीवन घर नहीं हो पाता है।

जहाँ तक घर को परिभाषित करनेवाले सुकून का सवाल है वह मुझे बहुत जगह मिलता है। जब सास-ससुर के पास सीवान जाती थी तो भी और जब जेठ-जेठानी के पास चंडीगढ़ जाती थी तो भी इत्मीनान से रम जाती थी। कभी-कभी दोस्तों के घर भी और पास-पड़ोस में भी मैं ज़्यादा 'at home' महसूस करती हूँ। होटल या सफर ने कभी मेरी नींद नहीं चुराई। जब लोग कहा करते हैं कि नई जगह उन्हें नींद नहीं आती तो मुझे हैरानी होती है। मैं बहुत जगह घरवाला अहसास रखती हूँ, फिर भी घर याद आता है।

हमारी तरफ एक और शब्द है डेरा। उसमें एक अस्थायीपन की बू है। मानो तंबू फिलहाल गड़ा हो और कभी भी उखड़ जा सकता है। माँ अक्सर हमारे पुराने घर को रानीघाट वाला डेरा कहकर याद करती है। वह उसके लिए बिलखती है और मैं उस डेरा शब्द में छुपे हुए अर्थ को समझने की कोशिश करती हूँ। यह डेरा कोई विद्यार्थियों के लिए किराये पर लिए गए मकान के लिए नहीं प्रयुक्त है और न ही डेरा सच्चा सौदा जैसे पंथ के लिए है, बल्कि घर के लिए है। ईंट-गारे से बने घर के लिए नहीं, अनुभवों से बने घर के लिए। इसीलिए जब माँ बोलती है तो मुझे घर करीब सुनाई पड़ता है और जब पापा बोलते हैं तो मुझे थोड़ी दूरी सुनाई पड़ती है।

घर के लिए स्थायी या अस्थायी होना बड़ा सवाल है। अमीर-गरीब, सवर्ण-अवर्ण, प्रवासी-आप्रवासी आदि कोटियों की पहचान में भी शायद घर के इस गुण की भूमिका रहती है।अस्थायी घर इंसान को और अधिक vulnerable बना देता है। जीवन में स्थायित्व की तलाश स्थायी घर की तलाश से शुरू होती है। घर मिल जाए तो लगता है कि सबसे बड़ा मसला हल हो गया। उस समय घर का ढाँचा असल मायने रखता है, घर के भीतर क्या होता है वह गौण हो जाता है। आश्रय देनेवाले के रूप में घर की परिभाषा सबसे ऊपर रहती है।

घर का गुण घर में रहनेवालों को परिभाषित करता है। कितना अजीब है न ? छोटा घर-बड़ा घर, खुला घर-दमघोंटू घर, लोगों से भरा घर-लोग विहीन घर, दोमंजिला-चरमंजिला घर - सब हाड़-मांस के इंसान के रिश्तों, उसकी आदतों, उसकी सोच, उसके स्वभाव और यहाँ तक कि उसकी आवाज़ तक को गढ़ता है। मैं अभी तक जितने तरह के घरों में रही हूँ उन सबने मुझको इस हद तक प्रभावित किया है कि मुझे कभी-कभी आर्किटेक्चर पढ़ने की ज़बरदस्त इच्छा होती है। वास्तु को जानने के लिए नहीं, बल्कि घर की बनावट से टकराते मानवीय गढ़न को समझने के लिए।

मुझे घर से जुड़े मुहावरों में दिलचस्पी है। घर बनाना, घर जमाना, घर टूटना, घर तोड़ना, घर लौटना या और भी। सबके केंद्र में औरत को रखा जाता है। घर को घर बनानेवाली भी औरत को कहा जाता है क्योंकि उसी की मांस-मज्जा पर वह टिका होता है। ऐसा नहीं है कि पुरुषों का खून-पसीना घर की नींव में नहीं जाता है। जाता है, भरपूर जाता है, लेकिन उसकी प्रकृति भिन्न होती है। मैंने अपने कई पुरुष मित्रों को घर के लिए तड़पते देखा है, फिर भी तड़प तड़प में भिन्नता होती है।

भैया जब भभुआ या सीवान या गैंगटॉक या हैदराबाद से भागा-भागा पटना आता है तो उसका घर आना सनी टावर्स या राजप्रिया अपार्टमेंट या मीठापुर में बँटा नहीं होता है। उसका अखंडित घर है उसका शहर, अपना शहर। मतलब दूरी घर के अर्थ का विस्तार कर देती है। तभी शायद लंदन और यॉर्क की यात्रा के बाद दिल्ली एयरपोर्ट पर ही हमें घर का अहसास होने लगा था।

हमारा घर आना कितना अलग है ! 'घरवापसी' शब्द का हश्र देखिए। हिंदूवादी लोगों ने उस घर को कितना हिंसक बना दिया है ! वैसे घर हिंसामुक्त होता नहीं है। घर को केवल रूमानियत से नहीं देखा जा सकता है। घर के भीतर साल दर साल हिंसा होती रहती है और किसी को भनक तक नहीं लगती। यदि घर का झगड़ा जगजाहिर हो जाए तो बुरा माना जाता है कि घर का मामला बाहर क्यों आ गया।

यह जो सीमा रेखा है घर के अंदर और बाहर की, वह बड़ी अनुल्लंघनीय है। लक्ष्मण रेखा का महत्त्व हमें पता ही है। यह घर जैसी संस्थाओं पर भी लागू होता है। हाल में जगमती सांगवान प्रसंग में बहस इसी को लेकर थी। घर का मामला सलटाने के लिए साम दाम दंड भेद - कुछ भी अपना लो चलेगा, बस सार्वजनिक होने से रोक लो। आज से तकरीबन 14 साल पहले एक नामी गिरामी प्रगतिशील स्कूल में जब बाल यौन शोषण की घटना हुई थी तो तब प्रबुद्धअभिभावकों ने यही कहा था कि घर (मतलब स्कूल) के अंदर ही बात रहनी चाहिए और पुलिस में जाने की ज़रूरत क्या है। मैं हैरान हुई थी कि जिस अधिकार को लड़कर हासिल किया है, उसे केवल घर की झूठी प्रतिष्ठा बचाने के नाम पर क्यों जाने दें !

बाद में घर की इज़्ज़त के बहुआयामी अर्थ स्पष्ट हुए। चारों तरफ हो रही 'ऑनर किलिंग' से लेकर मुख्तार माई का मामला और सैंकड़ों आत्महत्याओं का कारण समझ में आया। यह महज़ निजी और सार्वजनिक का झगड़ा नहीं है, बल्कि नियंत्रण और ताकत का झगड़ा है। किसका कायदा, किसका फैसला घर में चलेगा, किसको चुनने की आज़ादी है और किसको नहीं - इन सब से घर की नियति तय होती है।

किसी को घर मुहैया कराना कितना बड़ा दायित्व है, यह यदि देखना हो तो मुज़फ्फरनगर जाइए। अभी वहाँ एक कोशिश चल रही है पुनर्वास की। घर से बेदखल कर दिए गए लोगों को नए सिरे से जमाने की। इस उम्मीद में कि नया घर न केवल सर पर छत दे, बल्कि अपने बृहत्तर रिश्तों पर यकीन वापस आए। आस-पड़ोस आबाद हो, ज़िंदगी पटरी पर लौटे।

घर की चौहद्दी  तय करना और दूसरी चीज़ों से उसे विशिष्ट बताना हम सबकी आदत में शुमार है। मैं कभी-कभी बेटी पर गुस्सा होती हूँ तो कहती हूँ कि घर को होटल न समझो कि केवल खाना-पीना और सोने से मतलब हो। उस क्षण मैं उसकी गर्माहट की आकांक्षी होती हूँ। चाहती हूँ कि घर में वह उसी तरह चहके, गपशप करे या झगड़ा ही करे जैसे पहले करती थी। निर्लिप्त न रहे। घर के लोग ही क्यों, मेहमान भी हो तो खुलकर रहे।  बार-बार दुहराते रहते हैं हम कि 'घर समझिए इसको' जहाँ कष्ट है, फिर भी मिठास है।

क्या कहने भर से घर घर हो जाता है ! नहीं, उसके लिए अनवरत लगे रहना पड़ता है। घरवालों का मूड सँभालो, उनकी सुविधा का ख़याल करो। घर में जिसकी भी आमद-रफ़्त हो उसे देखो। काम में मदद करनेवाली का सूजा हुआ मुँह भी घर को बोझिल बना देता है तो माली की बेरुखी आपको खिन्न कर देती है। चंद घंटों के लिए आनेवाला इलेक्ट्रिशियन भी खुशमिजाज़ हो तो घर का माहौल हल्का हो जाता है। मतलब घर को हरचंद खुशगवार बनाने की कोशिश में लगे रहना पड़ता है। इसमें कभी-कभी इतनी थकान होती है कि मुझे घर काटने लगता है।

कुछ-कुछ सालों के अंतराल पर मन करता है घर से भाग जाऊँ। एकाध बार भागी भी, मगर रिठाला (मेट्रो से पहुँचनेवाला एक छोर) से लौट आई या मूलचंद के इलाके से लौटा ली गई। लौटते समय अपने पर हँसी आई और घर से भागना मुहावरेदार बन कर रह गया। याद आया कि माँ एक बार गुस्सा होकर घर से निकली और नानी के घर चली गई। शाम ढलते ही मामू ने कहा कि चलिए बड़की दीदी, आपको मोटरसाइकिल से घर छोड़ दूँ। माँ ने घर लौटकर कोफ़्त के साथ कहा कि अजीब हालत है, घर से भागना चाहो तो भी घूम-फिरकर वहीं पहुँचा दिया जाता है। खुशकिस्मती कहूँ या जो भी नाम दूँ, हमदोनों घर से उतने बेज़ार नहीं हुए थे कि घर लौटना बुरा लगा हो।

मगर उनकी सोचिए जिनकी साँस घर में दम तोड़ती हो ! उनके लिए घर से भागना जीने का एकमात्र उपाय रह जाता है। लट्ठ लेकर दुनिया पीछे पड़ जाती है कि बच्चू घर से निजात नहीं है और बहुतों को पकड़-धकड़ कर घर वापस ले आया जाता है। घर से भागी हुई लड़कियाँ कवि की कविता का विषय भर नहीं बनती हैं, आम चर्चा का विषय बन जाती हैं और वह उनके लिए मारक होता है। लड़के भी भागते हैं और सब मायानगरी का रुख नहीं करते हैं। कोई फुटपाथ पर रात बिताता है तो कोई रेलगाड़ी में।

खतरे के बावजूद घर छोड़ा जा सकता है। नया घर ढूँढा या बसाया जा सकता है। बेघर होना बेचारगी ही नहीं है, वह आपकी राजनीति भी हो सकती है।  इरोम शर्मिला का घर अभी कहाँ है ? आप अपने को निष्कवच बना दीजिए और तब परवाज़ भरिए।

लेकिन मैं कहाँ से कहाँ चली गई ? फिलहाल मुझे तो घर जाना था, लेकिन एक घर से दूसरे घर जाना कितना मुश्किल हो जाता है ! कौन पहला है, कौन प्राथमिक है, कौन तय करेगा यह - इसी सब में समय निकलता जाता है।

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