Saturday, October 6, 2018

Importance of 377 Judgement by Chayanika Shah

जब तक हम सब आज़ाद नहीं, हममें से कोई आज़ाद नहीं: 377 फ़ैसले की अहमियत, हर भारतीय के लिए

(अंग्रेज़ी से अनुवाद: स्मृति नेवटिया)
by Chayanika Shah
पृथ्वी के कोनों तक बिखरे हमारे जैसे कई लोग हैं जो पच्चीस सालों से चल रही लड़ाई के अपने समाधान पर पहुँचने का आज एहसास कर पा रहे हैं. 2013 में सर्वोच्च न्यायालय से मिले झटके के बाद ऐसे शब्द सुनना कि कौशल मामले में दिया गया निर्णय आज से रद्द हुआ और भारत में हमजिंसी रिश्तों पर से अपराध का साया हट गया है, यही हम लम्बे संघर्षों के अनुभवी-आदी कार्यकर्ताओं को आगे चलते रहने की हिम्मत देता है. इन छोटी-मोटी जीतों के बल पर हम जीने की उस राह की तरफ़ बढ़ रहे हैं जिसपर हमारा संकल्प यही रहेगा कि 'जब तक हम सब आज़ाद नहीं, हममें से कोई आज़ाद नहीं'.

हालांकि आज संवैधानिक पीठ से जो मिला है वह कोई मामूली फ़तह नहीं. जहाँ क्वीयर हक़ों की पूर्ती के लिए कुछ विशेष यौनिक व्यवहारों को क़ानूनी क़रार देना ज़रूरी है, अलबत्ता काफ़ी नहीं, इसे एक बड़ी जीत ही मानना होगा. यह ऐसा क़दम है जो संविधान की दृढ़ता का भरोसा दिलाता है, हमें विश्वास दिलाता है कि हमारा संविधान एक ऐसा गतिशील दस्तावेज़ है जिसे बदलते समय के अनुसार पढ़ते-समझते रहना होगा, और साफ़ ज़ाहिर करता है कि अल्पसंख्यकों की रक्षा करना अदालतों की ज़िम्मेदारी है, भले ही उस समुदाय की तादाद कितनी ही न्यून क्यों न हो.

ऐसे आश्वासन बड़ी अहमियत रखते हैं, ख़ास तौर पर हमारे आज के माहौल में, जहाँ "लिंचिंग" यानी भीड़ जमा कर किसी की हत्या कर डालना सामान्य बनता जा रहा है, ख़ास मज़हबों, विचारधाराओं व वक्तव्यों पर आक्रमण आम हो रहे हैं, मतभेद को कुचला जा रहा है, और राष्ट्रीय एकीकरण व पहचान के नाम पर हर तरह की आज़ाद अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाए जा रहे हैं. हम एक ऐसी उदारीकृत अर्थ-व्यवस्था में जी रहे हैं जिसके तहत ज़िंदा रह सकने वालों का शुमार दिन-ब-दिन कम हो रहा है. लोग प्राकृतिक संसाधनों पर अपने सारे अधिकार खो रहे हैं, और तथाकथित लोक-हितकारी राज्य धीमी किन्तु लगातार गति से ऐसे पुलिस राज्य में तब्दील हो रहा है जिसमें व्यवस्था पर सवाल उठाने वाले किसी भी व्यक्ति के दरवाज़े पर कभी भी दस्तक पड़ सकती है. इन हालात में सर्वोच्च न्यायालय से ऐसी संवैधानिक मान्यता का मिलना सभी नागरिकों के लिए ख़ुशी मनाने लायक बात है.

पृष्टभूमि 
90 की दशक के शुरू के साल थे जब हमने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के बारे में, जिसके तहत हमजिंसी संबंधों को अपराध माना गया था, बातचीत आरम्भ की. तब एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन (ABVA) ने दिल्ली के उच्च न्यायालय में अपनी याचिका दर्ज की थी, और बच्चों के साथ यौनिक उत्पीड़न पर, व धारा 375 और 376 में संशोधन पर भी, दोबारा विचार-विमर्श शुरू हुआ था. सबसे पहला हस्ताक्षर अभियान हमने 1995 में किया, जिसमें 377 के "रीडिंग डाउन" यानी उसके दायरे को सीमित करने की मांग रखी गयी. तब से अब तक इस आंदोलन ने पिछले 25 सालों में कितना लम्बा सफ़र तय किया – एड्स के रोक-थाम अभियान के सिलसिले में कंडोम बांटने की वजह से ग़ैर-सरकारी संस्था भरोसा के कार्यकर्ताओं के जेल होने के ख़िलाफ़ प्रदर्शन देखे, दिल्ली की कई अदालतों से गुज़रा, और इस दौरान नारीवादी व मानवाधिकारों के ढाँचे में क्वीयर हक़ों के लिए हम भी काम करते रहे.
एक चौथाई शताब्दी काफ़ी लम्बा वक़्त है, और किसी भी लम्बी क़ानूनी लड़ाई की तरह इसके भी उतार-चढ़ाव रहे, अजीबोग़रीब मोड़ आये. यह क्वीयर हक़ों के आंदोलन का अहम हिस्सा ज़रूर रहा है, पर क्वीयर व्यक्तियों के हक़ों का यह सिर्फ़ एक अंश है – बल्कि क्वीयर हक़ों के पूरे मतलब का तो और भी छोटा हिस्सा है. इसने हममें से बहुतों को साथ लाने का काम किया, बातचीत के भी अनेक दरवाज़े खोले – मीडिया में, घरों में, स्कूल-कॉलेजों में, सड़कों पर, जुलूस में, फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में, सांस्कृतिक मंचों पर, और भी न जाने कहाँ-कहाँ। बातचीत की बहुत-सी सोची-समझी कोशिशें की गयीं, इसीलिए आज सब 377 की लड़ाई और उसके अंजाम से वाक़िफ़ हैं.

अदालती लड़ाई चलती रही, और हमारे अंदर और बाहर की दुनिया बदलती रही. इस बीच विभिन्न पहचानों को मान्यता मिली है, और विभिन्न हक़ीक़तों को पहचाना गया है. हम अपने क्वीयर संघर्षों में लीन होते हुए भी आज तक "क्वीयर" होने के सारे मायने समझने-सुलझाने में लगे हुए हैं.
"क्वीयर" होने का अर्थ
कुछ व्यक्तियों के लिए क्वीयर महज़ एक जीवनशैली है, जो उन्होंने चुनी है, और कुछ अन्य व्यक्तियों के लिए यह हर मानदंड, हर तय सामाजिक ढाँचे पर सवाल उठाने का ज़रिया है. किसी-किसी के लिए संघर्ष इस बात तक सीमित है कि हम औरों जैसे ही समझे जाएँ, और किसी-किसी ले लिए यह न सिर्फ़ मुख्यधारा में समा लिए जाने के ख़िलाफ़ एक मुहिम है बल्कि हर मापदंड को चुनौती देने वाली ज़िन्दगी – ऐसे मापदंडों को भी, जो मुमकिन है क्वीयर परिवेश से ही उभरें. जहाँ कुछ लोगों के अनुसार बाक़ी जन संघर्ष "हमारे" नहीं थे, वहीँ कुछ लोग ऐसे क्वीयर आंदोलन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे जो हक़ों के लिए, इंसाफ़ और समानता के लिए, बाक़ी संघर्षों से कटा हुआ हो. कई ऐसे क्वीयर लोग रहे हैं जिनकी जीवनशैली पूँजीवाद के ही बल पर टिक सकी, तो ऐसे भी बहुत क्वीयर लोग रहे हैं जिनकी कमर इसी पूँजीवाद ने तोड़ दी और, बिना किसी सामाजिक सहारे-संपत्ति के, सड़कों पर अपनी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए मजबूर कर दिया.
तो यूँ, जैसे-जैसे हम सुप्रीम कोर्ट के उस भारी-भरकम फ़ैसले में कही जाने वाली बातों को पूरी तरह ग्रहण कर रहे हैं, और इस बेहद बड़ी जीत की सारी सम्भावनाओं को समझने की कोशिश कर रहे हैं, हम मानते हैं कि फिर एक बार दिलों में खुशियाँ जागीं हैं. जो हमेशा से हमारा अपना था, उसे हमने फिर पा लिया है. इस कड़वे सच को भी माना गया है कि बहुतों के साथ अन्याय हुआ, कि लोगों ने शर्म और ख़ौफ़ की ज़िंदगियाँ गुज़ारीं, कि कितने ही लोग बच नहीं पाए. यह न सिर्फ़ आज के और भविष्य के क्वीयर व्यक्तियों की क़ानूनी लड़ाई थी, बल्कि उन ग़ुमनाम या खोये साथियों के नाम कुछ हद तक प्रायश्चित भी. हरेक जज के अल्फ़ाज़ हमारे दिलों पर, हमारी अस्मिताओं पर, आज मरहम का काम कर रहे हैं. और ज़रूरी हिम्मत दिला रहे हैं आगे के उन संघर्षों के लिए, जो तब तक जारी रहेंगे जब तब हमारी आज़ादी सभी की आज़ादी के साथ जुड़ न जाये.

आख़िरकार यह कहना होगा कि सत्ताधारी तबके ने हमें इतनी प्रसन्नता कम ही दी है जितनी आज इस संवैधानिक पीठ ने दी. हम इस जीत का पूरी तरह लुत्फ़ उठा रहे हैं, क्योंकि कितना कुछ हमसे छीना भी गया है, और हर पल छिनता जा रहा है. हम ऐसी प्रसन्नता के और मौक़ों की ताक में रहेंगे (क्योंकि संवैधानिक पीठ फ़िलहाल और भी कई मामलों की सुनवाई कर रहा है). वैसे भी, ज़िन्दगी की ख़ुशियों को गले लगाना ही तो क्वीयर होने का सार है, उसके लुत्फ़ को क़बूल करने का एहसास ही क्वीयर होने की रूह.
चयनिका शाह क्वीयर नारीवादी कार्यकर्ता, और नारी अत्याचार विरोधी मंच व लेबिया – अ क्वीयर फ़ेमिनिस्ट एल बी टी कलेक्टिव की सदस्या है. यह उसके फ़ेसबुक पन्ने के एक पोस्ट का हल्के-से संपादन किया गया Scroll में प्रकाशित लेख है. अंग्रेज़ी में इसे यहाँ पढ़ा जा सकता है: https://scroll.in/article/893578/none-of-us-are-free-till-all-of-us-are-free-why-the-377-verdict-is-important-for-all-indians
https://scripts.labiacollective.org/magazine/page/p25

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