जब तक हम सब आज़ाद नहीं, हममें से कोई आज़ाद नहीं: 377 फ़ैसले की अहमियत, हर भारतीय के लिए
(अंग्रेज़ी से अनुवाद: स्मृति नेवटिया)
पृथ्वी के कोनों तक बिखरे हमारे जैसे कई लोग हैं जो पच्चीस सालों से चल रही लड़ाई के अपने समाधान पर पहुँचने का आज एहसास कर पा रहे हैं. 2013 में सर्वोच्च न्यायालय से मिले झटके के बाद ऐसे शब्द सुनना कि कौशल मामले में दिया गया निर्णय आज से रद्द हुआ और भारत में हमजिंसी रिश्तों पर से अपराध का साया हट गया है, यही हम लम्बे संघर्षों के अनुभवी-आदी कार्यकर्ताओं को आगे चलते रहने की हिम्मत देता है. इन छोटी-मोटी जीतों के बल पर हम जीने की उस राह की तरफ़ बढ़ रहे हैं जिसपर हमारा संकल्प यही रहेगा कि 'जब तक हम सब आज़ाद नहीं, हममें से कोई आज़ाद नहीं'.
हालांकि आज संवैधानिक पीठ से जो मिला है वह कोई मामूली फ़तह नहीं. जहाँ क्वीयर हक़ों की पूर्ती के लिए कुछ विशेष यौनिक व्यवहारों को क़ानूनी क़रार देना ज़रूरी है, अलबत्ता काफ़ी नहीं, इसे एक बड़ी जीत ही मानना होगा. यह ऐसा क़दम है जो संविधान की दृढ़ता का भरोसा दिलाता है, हमें विश्वास दिलाता है कि हमारा संविधान एक ऐसा गतिशील दस्तावेज़ है जिसे बदलते समय के अनुसार पढ़ते-समझते रहना होगा, और साफ़ ज़ाहिर करता है कि अल्पसंख्यकों की रक्षा करना अदालतों की ज़िम्मेदारी है, भले ही उस समुदाय की तादाद कितनी ही न्यून क्यों न हो.